भाग कामरेड भाग …क्योंकि दौड़ना बहुत जरूरी है
Posted by chimeki on July 14, 2014
मैं 24 जनवरी 2012 से लगातार दौड़ रहा हूं। तभी से मैं स्वस्थ हूं और उम्मीद से भरा हुआ हूं। मेरा मानना है कि शारीरिक व्यायाम अथवा कसरत हमारे स्वस्थ जीवन के लिए बहुत जरूरी है। रोज़ाना व्यायाम करने से हम शारीरिक रूप से स्वस्थ तो रहते ही हैं साथ ही मानसिक स्थिरता के लिए भी यह अत्यंत आवश्यक है।
मेरा मानना है, जो मेरे निजी अनुभव है, कि व्यायाम न करने वाले लोग शारीरिक रूप से चाहे जितने ही स्वस्थ क्यों न दिखते हों वे मानोविज्ञानिक स्तर पर बहुत कमजोर होते हैं। उन्हें लोगों से बात करने-मिलने से डर लगता है और घर की दहलीज पार करने से वे लगातार कतराते हैं।
दक्षिण एशिया में कसरत को हमेशा अस्वाभाविक और गैर जरूरी कार्य माना-बताया गया है। हिंदी का जो साहित्य मैंने पढ़ा है उनमें नायक हमेशा कमजोर और मरियल काया का होता है। अपनी कमजोरी के जवाब में वह बहुत बड़बोला किस्म का शख्स होता है। मुझे लगता है इस किस्म के नायक का जन्म इसी तरह का लेखक कर सकता है। दिल्ली आने के बाद से जब कभी मैं साहित्यकारों से मिलता हूं तो मेरे विचार की पुष्टी ही होती है। हिंदी में लिखने वाले सभी साहित्यकार दो एस्ट्रीम के होते हैंः या तो वे एकदम दुबले होते हैं या बेहद मोटे। काॅफी हाउस की 10 सीढि़या चढ़ते ही वे भयानक किस्म से हांफने लगते हैं। उनकी सांसों की आवाज सुन कर लगता है जैसे चींख रहे हो, ‘बचाओ, बचाओ’। फिर ऐसे ही साहित्यकार खुद को समाज के नायक के रूप देखते हैं और क्या हैरानी कि इनके नायक ऐसे ही मरियल न हों।
जब मैंने दौड़ना शुरू किया था तो मेरे साथी मुझ पर बहुत हंसते थे। उनका कोई कसूर भी नहीं है। वर्षो की शिक्षा ने उन्हे शारीरिक श्रम और व्यायाम को हिकारत से देखना ही सिखाया है। आसपास जो कम्युनिस्ट साथी हैं वे तो अन्य लोगों से भी दो कदम आगे ही हैं। कामरेड साथी तो समाज परिवर्तन की लड़ाई में विचार को इतना महत्व देते हैं कि अपने भौतिक शरीर के पीछे हाथ धो कर पड़े हुए हैं। उन्होने अपने भौतिक शरीर को नष्ट करने का बहुत अच्छा इंतजाम भी कर रखा है। सुबह से शाम तक सिगरेट खींचते हैं और बचे वक्त में शराब पीते हैं। कुछ खैनी और तुलसी चबाने को प्रगतिशीलता का महान प्रयोग मानते हैं।
मेरा ऐसा मानना है कि यदि दुनिया भर के वामपंथियों और प्रगतिशीलों का सर्वे किया जाए तो भारतीय प्रगतिशील तबका सबसे दुर्बल साबित होगा। ऐसे लोग जो शारीरिक रूप से निर्बल हैं, जो चंद कमद चलते ही हांफने लगते हैं, जो अपने शरीर को कचड़ापेटी मानते हैं वे जन विद्रोह और जन युद्ध की बाते करते हैं तो बड़ी हंसी आती है। इनका मूल आदर्श हैः ‘भागो’ नहीं दुनिया को बदलो। मेरा मानना है कि जो भाग नहीं सकता वह दुनिया को बदल भी नहीं सकता। ये लोग केवल सोते वक्त के अपने खूंखार खर्राटों से ही सरकारों को डरा सकते हैं। एक साथी ने एक किस्सा सुनाया था कि हाल में जंतर मंतर से कुछ कामरेडों को पुलिस पकड़ कर ले गई। रात में इनके खर्राटों से थाना ऐसा गूंजा कि खुद एसएचओ उन्हे अपनी गाड़ी से घर तक छोड़ कर आया।
इन सभी बातों के मद्देनज़र मैने तय किया हैं कि मैं शारीरिक स्वास्थ पर अपने कुछ अनुभव आपसे साझा करूं। ये मेरे अनुभव वर्ष 2012 की मेरी जयपुर यात्रा से आरंभ होते हैं और वर्ष 2014 में 21 किलो मीटर की दिल्ली हाॅफ मैराथन पूरा करने तक के हैं। मैं आप से अपने शरीर के साथ अपने उस प्रयोग के अनुभव को साझा करूंगा जिसमें मैंने मात्र 100 मीटर दौड़ कर थक जाने वाले अपने शरीर को 21 किलो मीटर तक दौड़ लगा सकने वाला शरीर बना डाला।
वि.श.
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