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Archive for July, 2020

भगवान राम का भारतीय होना आरएसएस के लिए जरूरी क्यों है

Posted by chimeki on July 15, 2020

नेपाल की राजधानी काठमांडू में रामनवमी के दौरान एक झांकी का दृश्य.

नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने भगवान राम और उनकी अयोध्या को लेकर हाल में जो बयान दिया है उससे भारतीय हिंदुओं का कट्टरपंथी और नस्लवादी तबका और उसके हितों को ऊर्जा देने वाले मीडिया का एक हिस्सा बेचैन और कंफ्यूज हो गया है.

कंफ्यूजन की सबसे बड़ी वजह है कि कम्युनिस्ट ओली ने राम के अस्तित्व को खारिज नहीं बल्कि राम की सांस्कृतिक परंपरा को भारतीय हिंदुओं से झपटने की कोशिश की है. अंग्रेजी में इसे कोऑप्ट करना कहते हैं. (वह खारिज करते तो खेल सरल होता और होमग्राउंड पर होता) बेचैनी और कंफ्यूजन ने इस तबके के भीतर गहरे तक मौजूद नस्लवादी अहंकार को फिर सतह पर ला दिया है.

ओली का वह बयान यूं था : “हम अब भी मानते हैं कि हम लोगों ने भारत के राजकुमार राम को सीता दी. भारत के नहीं हमने अयोध्या के राजकुमार को सीता दी थी. अयोध्या जो बीरगंज के पश्चिम की ओर एक गांव है. वह आज बनाई गई (नकली) अयोध्या नहीं है. वहां (भारत के यूपी) की अयोध्या भीषण विवाद में है. हमारी वाली पर कोई विवाद ही नहीं है. अयोध्या बीरगंज के पश्चिम में है, वाल्मीकि आश्रम नेपाल में है और जब दशरथ को संतान नहीं हुई तो उनके लिए पुत्रेष्टी यज्ञ कराने वाले पंडित जी रिडी (पाल्पा जिले में हैं) के थे. और इसलिए ना उनकी संतान राम भारत की है, ना अयोध्या भारत में है.”

बाद में नेपाल के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर अन्य बातों के अलावा यह जरूर कहा कि “प्रधानमंत्री की अभिव्यक्ति का इरादा किसी की भावना या मत को ठेस पहुंचाना नहीं था”, लेकिन जैसा भारतीय मीडिया बता रहा है नेपाल ने ओली के बयान को वापस नहीं लिया है बल्कि विदेश मंत्रालय ने अपने बयान से इस मामले को और अधिक विस्तार दिया है.

उस महत्वपूर्ण बयान में लिखा है, “श्रीराम के बारे में कई सारे मिथ और संदर्भ हैं और प्रधानमंत्री रामायण में वर्णित सांस्कृतिक भूगोल पर भावी शोध और अध्ययन के महत्व को रेखांकित कर रहे थे”.

फिर भी इस बयान को नेपाल की ह्युमिलिटी ही कहना चाहिए क्योंकि भावना को ठेस पहुंचाकर ओली की पार्टी को वोट का घाटा नहीं होने जा रहा था (नेपाल ने इस बारे में उपरोक्त बयान के अलावा कुछ नहीं कहा है लेकिन आजतक वहां के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली के नाम से झूठी खबरें चला रहा है).

नेपाल के विदेश मंत्रालय ने जिस “भावी शोध और अध्ययन के महत्व” की बात की है, भारत में वह परंपरा लंबे समय से चली आ रही है. वर्तमान राजनीतिक परिवेश में वह धीमी जरूर हुई है लेकिन उसका महत्व कम नहीं हुआ है.

प्रोफेसर एच. डी. संकालिया उसी अकादमिक परंपरा का महत्वपूर्ण स्तंभ हैं. रामायण ग्रंथ में बताये गए नगरों अयोध्या, लंका, दंडकारण्य आदि, पर उनका बहुत शानदार अध्ययन है (अपने एक लेक्चर “रामायण: मिथ ऑर रिएलिटी” में उन्होंने अनुमान लगाया है कि रावण की लंका मध्य प्रदेश के वर्तमान शहर जबलपुर के आसपास कहीं हो सकती है. एक और बात जो उनका लेक्चर पढ़ने से मेरे मन में आती है वह यह कि वर्तमान श्रीलंका को रामायण की लंका बताना विस्तारवादी मानसिकता से प्रेरित हो सकता है).

इसी तरह वानरराज बाली की राजधानी किष्किंधा को भी उन्होंने काल्पनिक बताया है. अयोध्या के बारे में उनका तर्क है कि वह किष्किंधा और लंका की तरह ही कुषाण और गुप्त काल में यानी 100 ईसवी और 400 ईसवी के बीच बसी होगी.

आगे बढ़ने से पहले एक मजेदार बात. भारत के बाद नेपाल में आरएसएस की सबसे ज्यादा शाखाएं हैं, तो उन शाखाओं के प्रमुखों से यदि पूछा जाए कि उनका ओली के कथन पर क्या स्टैन्ड है तो वे क्या कहेंगे? मतलब अगर वे कहें कि ओली झूठे हैं, तो विरोधी उन पर विस्तारवादी होने की तोहमत मढ़ देंगे और यदि वे कहें कि ओली सही हैं, तो वृहद आरएसएस की परंपरा से स्वयं को काटने जैसी बात होगी. इससे आगे बढ़कर यदि कह दें कि दोनों की सही हैं तो उनके राम ऐतिहासिक पुरुष से मिथक बन जाएंगे और संघ के पाठ्यक्रम में रोमिला थापर को भी स्थान मिल जाएगा.

स्कूल के दिनों में एक उपन्यास पढ़ा था जिसमें एक चीनी युवती माओ त्सेतुंग की क्रांति के बाद भारत आ जाती है और बाद में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़ जाती है. उस युवती को यह देख कर मन में बड़ा क्षोभ होता है कि भारत में बुद्ध की आंखें बड़ी-बड़ी हैं. उसे याद आता है कि चीन में बुद्ध की आंखें छोटी होती हैं. वह सोचती है कि यदि वहां भी बुद्ध की आंखें बड़ी बनायी जातीं तो क्या चीनी लोग बुद्ध को स्वीकार करते?

राम अयोध्या में हुए हों या नेपाल के बीरगंज में, इससे कैफ़ी आज़मी को, जिनके राम को छह दिसंबर को दूसरा बनवास मिला था भले फर्क ना पड़ता हो, लेकिन सावरकर को छटपटाहट जरूर होती है क्योंकि सावरकर को मानने वालों के लिए राम का भारतीय होना (और तो और उत्तर भारतीय होना) बहुत जरूरी है. उनकी संकीर्ण सोच एक भूगोल विशेष और नस्ल विशेष की परिधि में कैद है जिससे बाहर सोचना उनके बस की बात है ही नहीं. वे इससे बाहर सोचेंगे तो पाएंगे कि वे जहां फंसे हुए हैं वह भारत का न वर्तमान है और न ही उसका भविष्य बल्कि एक अतीत है. वह भी ऐसा अतीत जो बहुत हद तक काल्पनिक है. वह एक ऐसा अतीत है जिसकी पुनरावृत्ति भारत के लिए ही नहीं, दक्षिण एशिया सहित दुनिया भर के लिए घातक है.

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नेपाल में ओली-प्रचंड संघर्ष के पीछे एमसीसी की क्रोनोलॉजी को समझिए

Posted by chimeki on July 3, 2020

नेपाल में सत्तारूढ़ नेकपा के दो अध्यक्षों- प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्मकमल दाहाल प्रचंड- की लड़ाई एक निर्णायक मोड़ में पहुंच गई है. पार्टी में ओली तेजी से अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं. दो दिन पहले तक ओली के वफादार माने जा रहे नेता पाला बदल कर प्रचंड खेमे में आ गए हैं. प्रचंड से ओली और फिर ओली से प्रचंड खेमे में आने वाले एक महत्वपूर्ण नेता गृहमंत्री राम बहादुर थापा बादल भी हैं. वह बुधवार की सुबह ओली की बुलाई बैठक में शामिल थे. गुरूवार को प्रचंड की बैठक में शामिल हुए थे. (यहां सिर्फ सहूलियत के लिए प्रचंड खेमा कहा जा रहा है. वास्तव में वह तीन शीर्ष नेताओं- माधव कुमार नेपाल, झलनाथ खनाल और प्रचंड- का खेमा है. ये तीनों नेता नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री हैं. इस खेमे के चौथे नेता हैं वामदेव गौतम. गौतम पूर्व उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री हैं.

इससे पहले मैंने लिखा था कि ओली और प्रचंड की लड़ाई पार्टी के दो नेताओं या दो गुटों की लड़ाई नहीं है बल्कि यह नेपाल में चल रही चीन-अमेरिका खींचतान का राजनीतिक चेहरा है. इस लड़ाई की मूल वजह अमेरिका-नेपाल के बीच प्रस्तावित मिलेनियम चैलेंज कारपोरेशन (एमसीसी) समझौता है जो अमेरिका के नेतृत्व में चीन को घेरने की हिंद-प्रशांत रणनीति का हिस्सा है. ओली खेमा, जिसका हिस्सा नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली भी हैं, एमसीसी को संसद में पारित करवाना चाहते हैं और प्रचंड पक्ष इसका विरोध कर रहा है, हालांकि प्रचंड खेमा ओली के विरोध के पीछे समझौते के अलावा भी कई कारण गिनाता है. मिसाल के लिए, प्रचंड खेमे का आरोप है कि दो पार्टियों के बीच एकता के वक्त जो प्रतिबद्धताएं से ओली ने की थीं वह उनसे पीछे हट गए हैं. इन प्रतिबद्धताओं में से एक थी कि ओली और प्रचंड बारी-बारी से प्रधानमंत्री पद संभालेंगे.
ऐसा नहीं है कि ओली और प्रचंड के बीच हमेशा से ही टकराहट थी. 2014 में केपी शर्मा ओली तत्कालीन नेकपा एमाले के अध्यक्ष बने थे उसके बाद अक्टूबर 2015 में प्रचंड के नेतृत्व वाली एकीकृत नेकपा (माओवादी) के समर्थन से वह पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने. दिसंबर 2017 में हुए आम निर्वाचन में ओली और प्रचंड की पार्टियों ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा और दो-तिहाई बहुमत लाकर सरकार बनाई. मई में 2018 में दोनों पार्टियों का विलय हो गया. एकता के बाद एक समय ऐसा भी था जब दोनों नेता एक तरफ होते थे और अन्य नेता दूसरी तरफ, लेकिन जल्द ही ऐसा लगने लगा कि ओली का मकसद प्रचंड को किनारे लगाना है.

मिसाल के लिए, दिसंबर 2018 में ओली की मुख्य भूमिका में नेपाल में एशिया पैसिफिक या एशिया प्रशांत शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें 45 देशों ने भाग लिया. इस आयोजन की तैयारी और संबंधित गतिविधियों से प्रचंड को दूर रखा गया. इस कार्यक्रम को सफलता के साथ आयोजित करने के बाद विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली ने अमेरिका का दौरा किया और बिना अन्य नेताओं को विश्वास में लिए एमसीसी को देश में लागू करने का वचन दे आए. यहीं से पार्टी के अंदर शुरू हुआ एमसीसी विवाद. याद रखने वाली एक बात यह है कि एमसीसी को सबसे पहले सितंबर 2017 में नेपाली कांग्रेस की सरकार ने प्रस्तावित किया था और उस सरकार का हिस्सा प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी भी थी.

अब क्रोनोलॉजी…

दिसंबर 2018 को विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली ने अमेरिका भ्रमण के अवसर पर कांग्रेस के शासन में प्रस्तावित एमसीसी को आगे ले जाने का वादा अमेरिका के विदेश मंत्री से किया. बताया जाता है कि ऐसा करते वक्त उन्होंने पार्टी के दूसरे अध्यक्ष प्रचंड से परामर्श भी नहीं किया था.

जनवरी 2019 में प्रचंड ने जैसे को तैसा की तर्ज़ पर ओली और ज्ञवाली से चर्चा किए बगैर वेनेजुएला में अमेरिकी हस्तक्षेप के खिलाफ बयान दे डाला. यह बयान प्रचंड और ओली विवाद का पहला सार्वजनिक संकेत था. वेनेजुएला के विद्रोही नेता खुआन गोइदो ने 24 जनवरी को स्वयं को वेनेजुएला का राष्ट्रपति घोषित कर लिया था और अमेरिका ने तुरंत उन्हें मान्यता दे दी थी. नेपाल में प्रचंड ने अमेरिका के इस कृत्य को आंतरिक मामले में हस्तक्षेप बताते हुए एक वक्तव्य जारी कर दिया. पार्टी की ओर से जारी वक्तव्य में उन्होंने अमेरिका के हस्तक्षेप को स्वतंत्र और संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बताया और कहा कि गोइदो को राष्ट्रपति की मान्यता देना निर्वाचित राष्ट्रपति निकोलस मादूरो के खिलाफ बड़ा षड्यंत्र है. प्रचंड के इस बयान के बाद ओली की सरकार को अमेरिका की डांट सुननी पड़ी. अमेरिका ने नेपाल के राजदूत को तलब कर प्रचंड के बयान के लिए स्पष्टीकरण मांगा. ओली ने बयान को “जीभ का फिसल जाना” कह कर प्रचंड को सार्वजनिक रूप से नीचा दिखाया. लेकिन प्रचंड अपने बयान से पीछे नहीं हटे.

12 जून 2019 को ओली के खिलाफ सार्वजनिक रूप से प्रचंड ने दूसरी बार विद्रोह किया. एक कार्यक्रम में प्रचंड ने मीडिया काउंसिल बिल का यह कह कर विरोध किया कि यह बिल सरकार ने बिना आवश्यक तैयारी के संसद में पेश किया है. उनसे पहले 23 मई को पार्टी के शीर्ष नेता वामदेव गौतम, 31 मई को एशिया मानव अधिकार परिषद और 11 जून को नेपाली पत्रकार परिसंघ ने इस बिल का विरोध किया था. सभी का मानना है कि यह बिल मीडिया पर सेंसरशिप लगाने का प्रयास है.

18 अगस्त को ओली भी खुल कर मैदान में उतर आए और घोषणा कर दी कि वह अगले आम निर्वाचन के बाद ही प्रधानमंत्री पद छोड़ेंगे.

23 अगस्त को एक कार्यक्रम में प्रचंड ने ओली को फिर निशाने पर लिया. इस बात का इशारा करते हुए कि ओली दूसरों की मेंहनत और बलिदान के कारण सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हैं, प्रचंड ने एक कार्यक्रम में उनका नाम बिना लिए कहा कि नेपाल के कम्युनिस्ट राजा-महाराजाओं की तरह व्यवहार करते हैं. अन्य देश के कम्युनिस्ट बलिदान देते हैं और जनता के साथ जुड़ते हैं लेकिन नेपाल के कम्युनिस्ट सत्ता में आते ही राजा-महाराजा जैसे हो जाते हैं.

सितंबर 2019 में चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने नेपाल की तीन दिवसीय यात्रा की. उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी के शीर्ष नेताओं से मुलाकात की और इस दौरान चीन ने कई बयान जारी किए जिनमें से एक बयान ने एमसीसी समर्थकों को चौंका दिया. प्रचंड से मुलाकात के बाद जारी उस बयान में चीन के कहा था कि प्रचंड ने आश्वासन दिया है कि “गुट-निरपेक्ष नीति पर नेपाल का मजबूत विश्वास है और वह तथाकथित हिंद-प्रशांत रणनीति को खारिज करता है, वह चीन के विकास में अवरोध डालने वाले प्रयासों का विरोध करता है और उसका हमेशा से मानना रहा है कि चीन का विकास नेपाल के विकास के लिए अवसर है और वह चीन के सफल अनुभव से सीख लेने की इच्छा रखता है.”

इसके बाद के दिनों में पार्टी के अंदर और बाहर एमसीसी का विरोध तीव्र होता चला गया. इसके समर्थन और विपक्ष में, संसद के अंदर और संसद से बाहर के राजनीतिक दल, छात्र और बुद्धीजीवी मैदान में उतर आए.

29 जनवरी से 2 फरवरी के 2020 के बीच चली नेकपा की पूर्ण बैठक में पार्टी में वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री झलनाथ खनाल के नेतृत्व में एमसीसी का अध्ययन करने के लिए तीन सदस्यीय कार्यदल का गठन हुआ. 21 फरवरी को कार्यदल ने अपनी रिपोर्ट केपी ओली और प्रचंड को सौंप दी. रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि सरकार एमसीसी को मंजूर न करे.

फिर क्या था? इसके बाद से आर-पार की लड़ाई शुरू हो गई है. चूंकि इस समझौते को पारित करने की अंतिम तिथि यानी 30 जून नजदीक आ रही थी, ओली और समझौते के पक्षधर डेस्परेट हो गए.

20 अप्रैल को दूसरे दलों से एकता कर पार्टी में खुद की स्थिति मजबूत बनाने के लिए ओली ने राजनीतिक दल कानून को संशोधित करने वाला अध्यादेश जारी कराया. इससे पार्टी तोड़ कर नई पार्टी गठन करना आसान हो जाता, लेकिन विरोध के बाद इसे उन्होंने वापस ले लिया.

30 अप्रैल को ओली ने अपनी पार्टी में सेंधमारी के उद्देश्य से पार्टी सचिवालय की बैठक में यह कहते हुए कि कोरोना महामारी खत्म होते ही वह पद से हट जाएंगे, वरिष्ठ नेता वामदेव गौतम को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव सामने रखा. कुछ देर के लिए लगा कि ओली ने मैदान मार लिया है लेकिन ऐसा नहीं हुआ और जैसे-जैसे एमसीसी पारित करने की अंतिम मियाद पास आने लगी दोनों खेमों के बीच भिड़ंत भी तीव्र होने लगी और ओली पक्ष समर्थन के लिए विपक्ष की तरफ ताकने लगा.

16 मई को कोरोना लॉकडाउन के बीच पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने संसदीय दलों की बैठक में एमसीसी को जल्दी से पारित करने की बात कहते हुए ओली को समर्थन देने का इशारा किया. उनकी इस मांग के जवाब में एमसीसी पर बने झलनाथ खनाल वाली तीन सदस्यीय कार्यदाल के सदस्य रहे सत्तारूढ़ पार्टी के सांसद और पूर्व मंत्री भीम रावल ने 18 मई को संसद में आरोप लगाया कि एमसीसी को “चोर बाटो” (चोर दरवाजे) से पारित करने की कोशिश हो रही है यानी विपक्ष से चोरी छिपे गठबंधन करके, जिसके जवाब में ओली ने कहा कि ऐसा करने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि वह “मूल बाटो” (मुख्य दरवाजे) से पारित होगा.

इस बीच 8 मई को भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने पिथौरागढ़ जिले में बनी एक नई सड़क का उद्घाटन किया. जिस जमीन पर यह सड़क बनी है उस पर वर्षों से नेपाल अपना दावा करता रहा है. (इस विवाद को समझने के लिए वरिष्ठ पत्रकार और नेपाल के मामलों के जानकार आनंद स्वरूप वर्मा का जनपथ में हाल में प्रकाशित लेख पढ़ना अच्छा होगा.) भारत का यह कदम ओली के लिए वरदान बन कर आया और एमसीसी से गिर रही अपनी राष्ट्रवादी छवि को भारत विरोधी हुंकार लगाकर फिर संभालने की कोशिश की. भारतीय मीडिया ने उनको जितना कोसा नेपाल में वह उतने फूलते गए. संसद में विवादित भूभाग को नेपाल का हिस्सा दिखाने वाला नक्शा पारित हुआ तो एक पल के लिए नेपाल ओलीमय हो गया, लेकिन फिर शोर थम गया, ओली की हवा निकल गई और लोग एमसीसी का विरोध करने सड़कों और सोशल मीडिया पर लौट आए.

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नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और प्रचंड के बीच जारी झगड़े के पीछे क्या है?

Posted by chimeki on July 2, 2020

नेपाल में सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के दो अध्यक्षों, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दाहाल प्रचंड, के बीच लंबे समय से जारी रस्साकशी 30 जून को जारी पार्टी की स्थायी कमिटी की बैठक में खुल कर सामने आ गई. बैठक में प्रचंड ने प्रधानमंत्री ओली से अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने कहा. समाचार वेबसाइट रातोपाटी ऑनलाइन ने बताया है कि उनकी मांग को बैठक में मौजूद 17 नेताओं का समर्थन था. (पार्टी की स्थायी समिति में 45 सदस्य हैं.) वेबसाइट के मुताबिक प्रचंड की बगावत के बाद ओली अपने करीबी नेताओं और मंत्रियों से मीटिंग कर रहे हैं, जिनमें वह बगावत से निबटने की योजना तैयार कर रहे हैं.

28 जून को कम्युनिस्ट नेता मदन भंडारी की जयंती के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में ओली ने “खुलासा” किया था कि भारत उनकी सरकार को गिराने का प्रयास कर रहा है. इस तरह उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से प्रचंड सहित पार्टी में अपने विरोधियों पर भारत परस्त होने का आरोप लगाया था. उस कार्यक्रम में ओली ने कहा था, “यदि कोई समझता है कि नक्शा छापने के कारण सरकार बदल जाएगी तो उसे पुराने दिनों की गलतफहमियों से ऊपर उठने की जरूरत है. प्रधानमंत्री के पद पर बैठे रहने का मेरा मन नहीं है लेकिन अगर मैं हट गया तो फिर नेपाल के पक्ष में बोलने की हिम्मत कोई नहीं करेगा.” बाद में प्रचंड ने स्थायी कमिटी की बैठक में ओली को घेरते हुए कहा कि उनकी ऐसी अभिव्यक्ति से भारत के साथ अंतरराष्ट्रीय संबंध खराब होंगे.

हालांकि ज्यादातर जानकार मानते हैं कि दोनों नेताओं के बीच तनाव के पीछे दो कारण महत्वपूर्ण हैं. एक, दोनों पार्टियों (माओवादी और एमाले) के बीच मई 2018 में हुई एकता में की गई प्रतिबद्धता को ओली द्वारा पूरा न करना और दो, मिलेनियम चैलेंज कारपोरेशन (एमसीसी).

प्रचंड और उनके समर्थक दावा करते हैं कि दोनों पार्टियों के बीच एकता के वक्त पार्टियों के नेताओं के बीच सहमति हुई थी कि ओली और प्रचंड आधे-आधे कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष रहेंगे यानी जब ओली प्रधानमंत्री होंगे तो प्रचंड पार्टी के अध्यक्ष होंगे और जब प्रचंड प्रधानमंत्री बनेंगे तो ओली पार्टी के अध्यक्ष बन जाएंगे. हालांकि बाद में ओली इस सहमति से पीछे हट गए और भारत की वजह से यानी अंग्रेजी में थैंक्स टू इंडिया, नेपाल की राजनीति में उनका दबदबा अधिक हो गया था कि प्रचंड नई पार्टी में उनके खिलाफ खुलकर विद्रोह भी नहीं कर सके.

इसके अलावा नई पार्टी में प्रचंड की वैसी धाक भी नहीं थी जिसकी उन्हें आदत रही है. नई पार्टी के शीर्ष नेता प्रचंड पर विश्वास करने में कतराते हैं क्योंकि प्रचंड जब माओवादी थे तो उनकी पार्टी इन नेताओं को “दलाल पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि” कहती थी. माओवादी जनयुद्ध के दौरान माओवादी पार्टी और एमाले के कार्यकर्ताओं में अक्सर झड़पें होती थीं इसलिए निचले स्तर पर भी दोनों पार्टियों के नेताओं में आपसी विश्वास का आभाव है. 2010 में तो प्रचंड ने एमाले के वरिष्ठ नेता माधव कुमार नेपाल को प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए काठमांडू की सड़कों में भीषण आंदोलन किया था. ऐसी ही कई और वजहों से एकता होने के बाद भी पार्टी की कमिटियों और मोर्चों की बैठकें नहीं हो पा रही हैं, इनके पदों का सैटलमैंट तक नहीं हुआ है. इसके अलावा खुद प्रचंड के साथ एकता में आए कई बड़े नेताओं ने भी पाला बदलने के संकेत दिए हैं. इन कारणों से प्रचंड को अब तक केपी शर्मा ओली की मनमानी के आगे झुकना पड़ा रहा था.

लेकिन हाल के दिनों में, खासकर कोरोना और एमसीसी के चलते, ओली का “भारत विरोधी राष्ट्रवाद” कमजोर होने लगा है. हालांकि भारत के साथ हाल में हुए कालापानी-लिपुलेक विवाद ने उस राष्ट्रवाद में थोड़ी जान भर दी थी लेकिन वह अस्थायी साबित हुई.

ओली के राष्ट्रवाद की असल चुनौती एमसीसी है जिसे नेपाल के जानेमाने पत्रकार और जानकार अमेरिका की हिंद-प्रशांत योजना का हिस्सा मानते हैं. हालांकि नेपाल सरकार का ओली पक्ष इसे विशुद्ध रूप से विकास साझेदारी बताता है. एमसीसी के तहत अमेरिका नेपाल को 50 करोड़ डॉलर का ब्याज रहित अनुदान देगा जिसे नेपाल सरकार दोनों के बीच सहमति वाली परियोजनाओं में खर्च करेगी. इस साझेदारी को लागू करने की शर्त है कि इसका अनुमोदन संसद को करना होगा. चूंकि विवाद संसद से सड़क तक चल रहा है इसलिए ओली अब तक इसे संसद से पास नहीं करा सके हैं.

एमसीसी को सही परिप्रेक्ष में रखने वाले सबसे पहले नेपाली पत्रकारों में से एक रोहेज खतिवडा ने मुझे बताया है कि एमसीसी को हिंद-प्रशांत नीति से जोड़ कर देखने की अच्छी-खासी वजहें हैं. उनका कहना है कि एमसीसी के विरोधी ही नहीं बल्कि नेपाल में अमेरिकी राजदूत रैंडी बैरी सहित अमेरिकी के कई बड़े अधिकारियों ने इसे हिंद-प्रशांत नीति का हिस्सा कहा है. काठमांडू प्रेस में प्रकाशित एक लेख में खतिवडा ने चुटकी लेते हुए लिखा है, “क्या मजेदार बात है कि नेपाल में एमसीसी का विरोध करने वालों और अमेरिकी अधिकारियों की बात आपस में मिलती है.”

तो एमसीसी को अमेरिका की हिंद-प्रशांत नीति के साथ मिला कर देखा ही पड़ता है. हिंद-प्रशांत नीति पर बहुत कुछ लिखा जा सकता लेकिन यहां सिर्फ इतना ही कि अमेरिका की अगुवाई वाले इस गठजोड़ में जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत सहित कई देश हैं. ये सभी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का विरोध करते हैं. नेपाल में एमसीसी लागू होने का मतलब है कि नेपाल भी इस गठजोड़ में शामिल हो जाएगा. गठजोड़ में शामिल होने का मतलब है कि तटस्थता की अपनी नीति को छोड़ देगा. यही असल में एमसीसी विवाद की जड़ है. ओली, जो खुद को भारत विरोधी दिखाते हैं, असल में वह नेपाल में भारत के सबसे बड़े सहयोगी हैं. एमसीसी में शामिल होने की उनकी जिद, भारत के हित में है फिर चाहे वह इसे भारत विरोधी बन कर ही क्यों न पूरी करें. भारतीय मीडिया, जिसे वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय मामलों की, खासकर पड़ोस के मामलों की मामूली जानकारी भी नहीं होती, ओली के इस पक्ष से परिचित नहीं है और भारत को भी ओली की इस छवी को कायम रखने में ही अपना हित नजर आ रहा होगा.

इसलिए ओली और प्रचंड के बीच जो टकराव चल रहा है वह सिर्फ इन दो नेताओं की टक्कर का मामला नहीं है बल्कि यह नेपाल की भूराजनीति और चीन के साथ उसके संबंध को लंबे कालखंड के लिए बदल सकता है.

नेपाल में जारी अमेरिका-चीन युद्ध में भारत कहां खड़ा है?

भारत में हम अक्सर यह मानकर चलते हैं कि आसपड़ोस में ऐसा कोई देश नहीं है जो किसी न किसी विदेशी ताकत के इशारे पर काम नहीं कर रहा है. हम मानते हैं कि पाकिस्तान पहले अमेरिका परस्त था लेकिन अब चीन परस्त हो गया है. नेपाल, बंगलादेश, भूटान, श्रीलंका और अन्य देशों के बारे में भी हमारी ऐसी ही रायें होती हैं. वैसे ही नेपाल के लोग भारत को अमेरीका का प्रॉक्सी मानते हैं.

नरेन्द्र मोदी के शासन में उनकी यह मान्यता मजबूत हुई है क्योंकि भारत ने अपनी विदेश नीति पर पड़ा स्वायत्तता और स्वतंत्रता का छद्म आवरण उठा लिया है. मोदी के कार्यकाल में भारत ने गुट निरपेक्ष आंदोलन और सार्क जैसे समूह को डिफंक्ट बना दिया है और स्वयं को अमेरिका की हिंद-प्रशांत नीति के साथ मजबूती से नत्थी कर लिया है. यही कारण है कि अमेरिका अब नेपाल में अपने प्रॉक्सी के बिना सीधा हस्तक्षेप करने की स्थिति में आ गया है.

जब अमेरिका एमसीसी योजना लेकर आ रहा था तो मुझे, पुराने अनुभवों के आधार पर, लगा रहा था कि भारत को इतना सीधा हस्तक्षेप कभी पसंद नहीं आएगा क्योंकि भारत ने हमेशा नेपाल में अमेरिका की ऐसी घुसपैठों का विरोध किया था. लेकिन मुझे तब बहुत हैरान हुई जब मोदी सरकार ने ऐसा होने दिया. इसकी एक सबसे बड़ी सीख तो यह है कि मोदी का भारत बाहर से चाहे जो दिखावा करता हो- नेपाल में आर्थिक नाकेबंदी करना, अनुच्छेद 370 हटाना, सर्जिकल स्ट्राइक आदि- लेकिन भीतर से उसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीजों को हल करने के आत्मविश्वास की गहरी कमी है. मोदी अच्छे वक्त के शानदार प्रधानमंत्री तो हो सकते हैं लेकिन संकटकालीन अवस्था के लिए वह एक खराब प्रधानमंत्री साबित हुए हैं और भारत का उन पर विश्वास करते रहना उसके दीर्घकालीन हितों के लिए खतरनाक हो सकता है. कोविड-19 संकट में सरकार की लचर भूमिका और चीन के साथ ताजा विवाद से इसकी पुष्टि होती है. डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ऐसा नहीं था. सिंह के कार्यकाल में कम से कम पड़ोसियों के मामलें में भारत चीजों को स्वयं हल करना चाहता था और कई बार उसने किया भी था.

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