दिलीप मंडल जी को वो सहूलियत है जो बहुत कम लोगों के पास होती है: वो किसी विचार को नहीं ढोते किंतु विचार उनको ढोते हैं. उनकी एक तय मंजिल है जहां पहुंचने के लिए वो विचारों की बसें लगातार बदलते रहते हैं. फिलहाल वो संविधान, सामाजिक न्याय, उत्पीड़ित समाजों की एकता और इंसाफ की बस से उतर कर हिंदुत्व के बुलडोजर में सफर कर रहे हैं.
दिलीप जी लगातार यह याद करवाते हैं कि दलित और पिछड़े लोगों के लिए सही विचारधारा अवसरवाद है. वो इस मामले में कांशीराम का हवाला भी देते हैं. लेकिन मूल बात है कि जबकि कांशीराम का “अवसरवाद” राजनीतिक नेतृत्व लेने की एक टैक्टिस है, दिलीप जी कांशीराम की मान्यता की गलत व्याख्या प्रस्तुत कर “अवसरवाद” को स्ट्रेटजिक बना देते हैं. उनका “अवसरवाद” स्थाई है. इस तरह उनका “अवसरवाद” दलित और दमित लोगों को सामूहिक रूप से संगठित हो कर स्वयं और संपूर्ण समाज के रूपांतरण करने से वंचित करता है और उत्पीड़ित लोगों को सत्ताधारियों के आचरणानुसार पीछे-पीछे चलने के लिए प्रेरित करने वाला है.
हाल में जिस तरह के साहित्य को उन्होंने प्रोत्साहन दिया है या लिखा है, वो इसकी एक मिसाल है. उदारहण के लिए, प्रिंट वेबसाइट में प्रकाशित एक आलेख में सिंधिया राजवंश का बचाव यह कह कर किया गया है कि उपनिवेश शासन के खिलाफ 1857 की क्रांति के साथ उनकी धोखेबाजी रणनीतिक थी. उन्होंने उपनिवेश शासन के साथ सिंधिया राजवंश की साठगाठ को 19वीं सदी में मराठाओं और पेशवाओं की काल्पनिक टकराहट के रूप में पेश किया है. इस प्रकार वो साठगाठ को पेशावा शासन को खत्म करने की मराठा राजनीति के रूप में रखते हैं. लेकिन पूछा जाना ही चाहिए फिर ऐसा क्या था जिसने पेशवा शासन के अंत के बाद भी मराठा राजाओं को अंग्रेजों के साथ उपनिवेश काल के अंत तक भी बनाए रखा?
कॉलेजियम के बहाने न्यायपालिका के खिलाफ बीजेपी के हमलों के भी बचाव में दिलीप जी आ गए हैं. वो मासूम नहीं हैं कि न समझते हों कि कॉलेजियम को आधार बना कर न्यायपालिका के खिलाफ बीजेपी का हमला किसी सामाजिक न्याय के उद्देश्य के लिए नहीं है, बल्कि हिंदू राष्ट्र के निर्माण के अपने रास्ते में वो न्यायपालिका को बड़ा रोड़ा देख रही है. अपनी तमाम लेगेसी खामियों के बावजूद न्यायपालिका ही एक मात्र ऐसी संस्था है जो सरकार को मनमानी करने से रोकने की क्षमता रखती है. हाल के कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की निरंकुशता पर लगाम लगाने का संक्षिप्त ही सही लेकिन प्रयास किया है (ईडी निदेशक के कार्यकाल विस्तार, मणीपुर हिंसा, आदि). लेकिन दिलीप जी द्वारा न्यायपालिका पर हमला न्यायपालिका में सुधार ला कर इसे और प्रगतिशील और समावेशी बनाने के लिए नहीं है बल्कि वो इसे बीजेपी के हितार्थ कमजोर करते हैं.
इस बीच वो दलित-मुस्लिम एकता का दिखावा भी त्याग चुके हैं और “व्यापक हिंदू एकता” की आरएसएस की मान्यता के प्रचारक हो गए हैं. एससी आरक्षण में मुस्लिम और ईसाइयों को शामिल करने की बात का जिस प्रकार वो विरोध कर रहे हैं वो संघ के साथ उनकी बढ़ती निकटता को दिखाता है. एससी आरक्षण में मुस्लिमों का विरोध करते हुए दिलीप जी बुद्ध धर्म और सिख धर्म को हिंदू धर्म का हिस्सा भी बता रहे हैं. यह कोई नई व्याख्या नहीं है बल्कि यह आरएसएस का पुराना एजेंडा है. इसका एक उदाहरण है कि संघ के बड़े नेता इंद्रेश कुमार ने सितंबर 2017 में तीन दिवसीय “अन्तर्राष्ट्रीय इक्ष्वाकु वंशीय सम्मेलन” का आयोजन करवाया था. वहां उन्होंने जोर दे कर कहा था कि महावीर, बुद्ध और गुरुनानक, ये सभी इक्ष्वाकु वंशीय हैं. यानी ये सभी एक ही सनातन धर्म की अलग-अलग शाखाएं हैं.
यहां इस बात पर जोर देने की जरूरत नहीं है कि आर्थिक नीतियों में वो पूंजीवाद के वैसे ही समर्थक हैं जैसा आरएसएस है. आरएसएस शुरू से ही पूंजीवाद का समर्थक रहा है. लेकिन जिस दौर के पूंजीवाद का आरएसएस समर्थक है उस दौर का पूंजीवाद क्रांतिकारी नहीं है, बल्कि वो फासीवादी हो चुका है. और इसलिए आरएसएस का पूंजीवादी एक संकीर्ण, क्रोनी, नस्लवादी और उपनिवेशवादी पूंजीवाद है. दिलीप जी जब अडानी का, राष्ट्रीय उद्योगों में विदेशी निवेश का और कृषि में कारपोरेट घुसपैठ का समर्थन कर रहे होते हैं तो वो पुराने दौर के क्रांतिकारी पूंजीवाद का नहीं, जो समंतवाद के खिलाफ एक प्रगति थी, बल्कि पेरासाइट, मनवताद्रोही, नस्लवादी और धर्मांध पूंजीवाद का समर्थन कर रहे होते हैं. संक्षिप्त में कहें तो वो नवउपनिवेशवाद के अपोलोजिस्ट अथवा समर्थक हैं. वो अपनी बांहे फैला कर उस बदनाम उपनिवेशवाद की दूसरी वापसी का इंतजार कर रहे हैं जिसने दुनिया की तमाम महान सभ्यताओं को, मेहनतकश लोगों को बर्बाद कर दिया था.
लेकिन दिलीप मंडल का यह वैचारिक स्खलन अनायस नहीं है. उनका यह दोष उस वैचारिक परंपरा की सीमा के चलते है जो खटारा हो चुकी बस को ड्राइवर बदल कर चलाना चाहती है. अभी एक मौके पर दिलीप जी ने लिखा था कि बीजेपी ब्राह्मण-बनिया पार्टी से बदल कर ओबीसी पार्टी हो गई है. इसके उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि बीजेपी के 38 केंद्रीय पदाधिकारियों में से 8 को छोड़ कर सभी ओबीसी हैं. वो बीजेपी में आए इस बदलाव को “दूसरा लोकतांत्रिक उभार” कहते हैं. इस व्याख्या से वो भारतीय इतिहास के एक दर्दनाक सच पर परदा डाल रहे हैं जो यह है कि यह बहुजन राजनीति का दूसरा उभार नहीं है बल्कि यह बहुजन राजनीति का हिंदूकरण हो जाने का संकेत है. जबकि पहले उभार में “मिले मुलायम-कांशाराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम” यानी दलित-बहुजन-अल्पसंख्यक एकता ने देश को एक हद तक राजनीतिक फासीवाद से बचाया था, वहीं इस दूसरे उभार में बहुजन-द्विज की एकता अल्पसंख्यक समाज के नरसंहार को तेजी से करीब ला रही है.
भारत का दलित समाज एक क्रांतिकारी समाज है. भारतीय दलित समाज में वे सारी विशेषताएं हैं जो उसे समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण का अगुआ बनाती है. पिछली सदी में यहां के दलित समाज का तीव्र राजनीतिकरण हुआ. उसने अपनी एक अलग पहचान भी बनाई जो एक हद तक दलित राष्ट्रीयता का ही भ्रूण रूप है. इसके साथ ही उसने मुस्लिम, सिख और अन्य अल्पसंख्यकों को साथ लाने जैसे कई राजनीतिक प्रयोग भी किए. लेकिन उसके भीतर क्रमशः यह समझ भी पैदा हो रही है कि वर्तमान राजनीतिक सत्ता में सांकेतिक हिस्सेदारी ऐतिहासिक रूप से जारी उत्पीड़न का मूल हल नहीं है. यही वो खतरा है जिससे भारत की सरकारें और उनके समर्थक भयभीत रहते हैं. इस खतरे के खिलाफ उनके दो हथियार हैं: दलित समाज का हिंदूकरण और वाम विचारधारा पर बेबुनियाद हमला. दिलीप मंडल जी इन दोनों कामों को कुशलता से कर रहे हैं.